छतरपुर की राजनीति में ब्राह्मण नेता हाशिए पर, चरणवंदन की तस्वीरों ने खोली जिले की राजनीति की पोल

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@परिंदा सुनील रिछारिया छतरपुर। राजनीति के अखाड़े में जब नेता अपनी रीढ़ सीधी रखकर चलना छोड़ दें और झुककर राजनीति साधने लगें, तो समझिए कि समाज की अस्मिता दांव पर लग गई है। ऐसा ही नज़ारा इन दिनों छतरपुर जिले में देखने को मिल रहा है, जहां ब्राह्मण नेताओं के चरणवंदन की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर इस तरह वायरल हो रहे हैं, जैसे किसी ने हवन में घी डाल दिया हो।

चंबल की दिलेरी बनाम छतरपुर की-नतमस्तक राजनीति

23 जून को भिंड के लहार में सीएम डॉ. मोहन यादव ने मंच से कहा था—चंबल के लोग कितने दिलेर होते हैं। लेकिन छतरपुर की राजनीति का दृश्य तो बिल्कुल उलट है। यहां कुछ नेता दलेरी नहीं, बल्कि दासता का पाठ पढ़ते नज़र आ रहे हैं। चंबल की बंदूक़ें साहस की मिसाल हैं, वहीं छतरपुर की राजनीति आज चरणों में गिरकर चरणामृत पीने में लगी है।

चरणवंदन की तस्वीरें: आस्था या मजबूरी

समाज की संस्कृति कहती है—बड़ों का सम्मान करो, पैर छूना हमारी परंपरा है। लेकिन जब यही परंपरा राजनीति की बिसात पर मजबूरी का खेल बन जाए तो तस्वीरें कटाक्ष करने लगती हैं।सोशल मीडिया पर वायरल तस्वीरों में कभी जनप्रतिनिधि, तो कभी खुद को दबंग कहने वाले छोटे-मोटे नेता दंडवत मुद्रा में नज़र आते हैं। लोग पूछ रहे हैं— क्या यह संस्कार है या सत्ता के गलियारों तक पहुंचने की शॉर्टकट सीढ़ी हैं।

सत्यव्रत चतुर्वेदी: राजनीति का वो अडिग स्तंभ

छतरपुर ने एक दौर ऐसा भी देखा जब ब्राह्मणों का सर्वमान्य चेहरा पूर्व सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी थे। उन्होंने कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कभी सत्ता के चरण नहीं पकड़े। न किसी मुख्यमंत्री के, न ही किसी मंत्री के। उनकी राजनीति विचारधारा और सिद्धांतों पर टिकी रही, इसलिए बुंदेलखंड का ब्राह्मण समाज उन पर आंख मूंदकर भरोसा करता था। लेकिन आज वही समाज अपने नेताओं को देखकर सोच रहा है—क्या हमारे वर्तमान नेता राजनीति के महाकुंभ में अपने आत्मसम्मान को ही बेच आए हैं।

दलित-ओबीसी की राजनीति और ब्राह्मणों की उपेक्षा

आज भाजपा से लेकर कांग्रेस और क्षेत्रीय दल तक, सबका ध्यान दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के वोटों पर केंद्रित है। भाजपा 2014 के बाद से खुद को एससी-एसटी की पार्टी के रूप में स्थापित करने में जुटी है।

कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है।

बसपा का सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला (सतीश चंद्र मिश्रा वाला) यूपी में बुरी तरह फ्लॉप हो चुका है। समाजवादी पार्टी का झुकाव शुरू से ही ब्राह्मणों से ज्यादा अन्य जातियों की ओर रहा है। नतीजा यह कि छतरपुर में ब्राह्मण समाज नेतृत्वविहीन हो गया है और नेता अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए नतमस्तक राजनीति करने को मजबूर हैं।

यूपी का सबक और छतरपुर का सच

2007 का यूपी याद कीजिए। मायावती ने सतीश चंद्र मिश्रा को आगे कर ब्राह्मण कार्ड खेला था। शुरुआती दौर में यह प्रयोग सफल दिखा, लेकिन अंततः ब्राह्मण समाज न तो उन्हें अपना नेता मान सका और न ही बसपा का यह दांव लंबे समय तक चल सका। छतरपुर का समाज भी आज उसी दोराहे पर खड़ा है—जहां नेता चरणवंदन तो कर रहे हैं, लेकिन समाज के भीतर असंतोष की आग सुलग रही है।

ब्राह्मणों का -राजनीतिक वनवास

छतरपुर की राजनीति में कभी ब्राह्मण बिरादरी का बोलबाला था। कई सीटों पर उनका निर्णायक प्रभाव रहा है। लेकिन आज हालत यह है कि समाज अपने लिए सर्वमान्य नेता की तलाश में भटक रहा है। कामाख्या प्रताप सिंह और अनूप तिवारी जैसे चेहरे स्थानीय राजनीति में सक्रिय तो हैं, मगर पूरे ब्राह्मण समाज को जोड़ने वाली छतरी कोई नहीं बन पा रहा।

नेता झुक रहे हैं, समाज तिलमिला रहा है और राजनीति में ब्राह्मण अस्मिता का सूरज ढलता जा रहा है।

बड़ा सवाल—विकास या महत्वाकांक्षा

अब सवाल अब भी यही है कि जो नेता आज चरणवंदन कर रहे हैं, क्या यह जनता के विकास के लिए है, या फिर यह सिर्फ उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का राजनीतिक प्रायश्चित है। छतरपुर की जनता को इस सवाल का जवाब चाहिए— क्योंकि राजनीति जब रीढ़ विहीन हो जाती है, तो समाज का भविष्य भी सवालों के कटघरे में खड़ा हो जाता है।

Parinda Post
Author: Parinda Post

सरहदें इंसानों के लिए होती हैं, परिंदा तो आज़ाद होता है !

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